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भारत को आजादी वीर सावरकर ने दिलाई थी!!!

आलोक पाण्डेय
आलोक पाण्डेय
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भारत को आजादी वीर सावरकर ने दिलाई थी!!!
भारत के इस आजादी के लड़ाई में तो असंख्य लोगों ने कुर्बानियाँ दी लेकिन इस लड़ाई को असली मुकाम तक पहुचाने वाले सावरकर ही थे।written by Alok, Buxar
जी हाँ मित्रो! कितनी शर्म की बात है कि ये इतिहास हमे पढ़ाया ही नहीं जाता बल्कि कुछ लोग सावरकर को गद्दार बताने से भी नहीं हिचकते।
आज की पोस्ट में हम इसी बात को सिद्ध करेंगे।
बात 26 जून 1940 की है उस दिन सुभाषचंद्र बोस, सावरकर सदन में उनसे मुलाकात के लिए गए थे। उनको कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था और वे कोलकत्ता में अग्रेजो के मूर्तियों को तोड़ने की योजना बना रहे थे। उन्होंने अपनी योजना सावरकर को भी बताई। तभी सावरकर ने उनकी व्यग्रता भांप लिया था। उन्होंने उनको ऐसा करने से रोक दिया और सलाह दी कि इस तरह का कार्य करने से अंग्रेज सरकार को आपको जेल में बंद करने का एक बहाना मिल जाएगा, और आप जेल में रहकर कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।
फिर उनको उन्होंने अपने समकालीन क्रांतिकारी रासबिहारी बोस का वो चिट्ठी दिखाई जिसमें भारतीय युद्ध बंदियों के सहायता से आजाद हिन्द फ़ौज की गठन की बात की गई थी। पूरी प्लान यहाँ तैयार करके सुभास गायब हो गए और 6 महीने बाद जर्मनी में निकले।
लेकिन उस समय तत्कालीन भारतीय सेना की हालत जर्जर थी। और उसमें मुसलमानों की संख्या भी बहुत ज्यादा थी। वे जानते थे कि इस राष्ट्र के लिए केवल हिन्दू ही बलिदान देने को तैयार होंगे। उन्होंने यही पर अपनी कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए अंग्रेज वायसराय को अपने प्रभाव में ले लिया। उन्होंने साफ शब्दों में उसको प्रस्ताव दे दिया कि फ़िलहाल युद्ध सर पर है और आपको सेना की जरूरत है। मैं इस कार्य में आपकी खुल कर मदद करूँगा और उन्होंने ज्यादा से ज्यादा हिंदुओ को भर्ती करवाने का आश्वासन ले लिया। उसके बाद शुरू हुआ सावरकर का सेना भर्ती अभियान। वे गाँव-गाँव, शहर-शहर घूम-घूम कर सभा करके युवको को सेना में भर्ती होने की प्रेरणा देने लगे। खासकर उनलोगों को जो हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता थे और जिनमें देशभक्ति भावना हिलोरे मार रही थी। जाहिर था उनके इस दूरदर्शी कदम की समझ अदूरदर्शी लोगों को नही होती। लिहाजा कांग्रेस तो इस कदम का विरोध कर ही रही थी बल्कि संघ भी विरोध में उत्तर आया था, क्योंकि सीधे देखने पर लग रहा था कि इस तरह तो सावरकर अंग्रेजो को फायदा पहुचा रहे है। लेकिन सावरकर के इस कदम के क्या परिणाम हुए?
जो लोग सेना में गए उन्होंने आग में घी का काम किया। उन्होंने सैनिको के शिविरों में अंग्रेज विरोधी वातावरण बनाना शुरू कर दिया। एक प्रकार से 1857 का इतिहास दुहराने की कोशिस की और इसमें आशातीत सफलता मिली। इसमें से कई सिपाही तो युद्ध के मैदान में ही पाला बदल कर आजाद हिन्द फ़ौज में चले गए।
सितम्बर 1941 में फ्री इंडिया रेडिओ से बोलते हुए सुभास चन्द्र बोस देश को संबोधित करते हुए कहते है की जब कांग्रेस और अन्य दल ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए सैनिको को भाड़े के टट्टू कह कर संबोधित कर रहे थे तो ये देख कर बड़ी ख़ुशी हुई की सावरकर बड़ी ही निर्भीकता के साथ देश के युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए कह रहे है, ये सावरकर के ही पूण्य का प्रताप है जो हमे आज उनके द्वारा आग्रह करके ब्रिटिश सेना में भर्ती किये गये सेनानी प्रशिक्षित सैनिको के रूप में मिल रहे है।
1945 में आजाद हिन्द फ़ौज की भले ही हार हुई हो लेकिन तत्कालीन भारतीय सेना में वो सैनिक तो अभी भी मौजूद थे जिनके हृदय में सावरकर द्वारा लगाई गई आग प्रज्वलित थी। उन्होंने अपना काम जारी रखा और भारतीय सेना के अंदर ही अंदर चिंगारी सुलगाना जारी रखा। आखिर वो दिन आ ही गया। 18 फरवरी 1946 ही वो दिन था जब भरतीय नेवी में असंतोष की ज्वाला धधक उठी। मुम्बई से उठी यह ज्वाला जल्दी पुरे देश में फ़ैल गई। और भूख हड़ताल के नाम पर शुरू हुआ यह आन्दोलन सशस्त्र आंदोलन में बदल गया। जगह-जगह अंग्रेजो को मारा जाने लगा, चर्चो को गिराया गया। लेकिन येन वक्त पर उस समय के तथाकथित राष्ट्रिय नेतृत्व ने उन सैनिकों को धोका दिया। क्योंकि सैनिक इन नेताओ में नहीं फर्क करते थे उनको तो सभी स्वतंत्रता सेनानी ही लगते थे। जिन कांग्रेसी नेताओ पर वो अटूट विश्वास करते थे उन्होंने इन सैनिको का पीठ ठोकने के बजाए गुंडा तक कह कर संबोधित किया, और दंड देने तक की मांग कर डाली। चाहे वो गाँधी हो या नेहरु, पटेल या जिन्ना सभी ने उनलोगों की आलोचना की जिससे उनलोगों का मनोबल टूट गया, और मजबूरन सरेंडर करना पड़ा।alok
इतना सब होने के बाद अब तो अंग्रेज एक-एक भारतीय सैनिक अंदर जो तपिस थी उसको महसूस करने लग गए थे। एक खौफ उनके अंदर समा गया था। ये विद्रोह निश्चित रूप से उनको 1857 का याद दिला रहा था। उनका भरोषा अब इस भारतीय सेना से उठ गया था और वे अपने को एक आग के उपर बैठे महसूस कर रहे थे।
अंततः उन्होंने भारत से बाहर निकलने का सम्मानजनक रास्ता चुना। दुनिया को झूठ-मुठ का दिखाया कि आर्थिक परेशानी के कारण भारतीय उपमहाद्वीप छोड़ रहे है।
दोस्तों इतनी बड़ी बात इतिहास से इस प्रकार छिपा लिया गया है मानो ऐसा कुछ हुआ ही न हो। अगर विश्वास न हो तो गूगल पर सर्च कर के इस घटना पर उस समय के तत्कालीन नेताओ के बयान पढ़ लीजिए शर्म के मारे माथा झुक जाएगा। फिर आप यह कैसे उम्मीद कर सकते है कि लोगो को यह सच्चाई बताया जाएगा।

©आलोक देश पाण्डेय, सिविल लाइन, बक्सर (बिहार)- 802101

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